कैसे जाना हो उस पार
खड़े सोच रहे थे हनुमान
स्वयं को निर्बल,अशक्त मान
"क्या ज्ञात नहीं रघुराई को
खड़े सोच रहे थे हनुमान
स्वयं को निर्बल,अशक्त मान
"क्या ज्ञात नहीं रघुराई को
कि खोजना सीता माई को
न कोई सरोवर फांदना है
महा सागर एक लांघना है
न मैं देव न दानव हूँ
न परम योग्य महामानव हूँ
जाना उड़ कर उस पार वहाँ
सामर्थ्य ये मुझ वानर में कहाँ"
कंधे पर हाथ के स्पर्श पड़े
न मैं देव न दानव हूँ
न परम योग्य महामानव हूँ
जाना उड़ कर उस पार वहाँ
सामर्थ्य ये मुझ वानर में कहाँ"
कंधे पर हाथ के स्पर्श पड़े
देखा तो पूज्य जामवंत खड़े
कह न सके पर कुछ मुख से
श्वास भरी एक बस दुःख से
माथे के बल पर थे जो जड़े
माथे के बल पर थे जो जड़े
वे प्रश्न सभी जामवंत ने पढ़े
दुविधा मन की सब गए जान
हंस कर बोले "प्रिय हनुमान
खुद से इतना मत करो दुंद्ध
खुद से इतना मत करो दुंद्ध
अपनी आँखों को करो बंद
प्रभु की छवि पर ध्यान धरो
अपने बचपन का स्मरण करो
जब सीमित थे न सागर तक
जब सीमित थे न सागर तक
पहुंचे थे दिव्य दिवाकर तक
तुमको यह भी न रहा भान
समझ सूर्य को फल समान
मुख में रखने का हट कर के
मुख में रखने का हट कर के
पहुंचे सूरज तक उड़ कर के
सारी कलाएं,शक्तियां तभी
श्राप से एक भूले थे सभी
याद इन्हें तब आना था
याद इन्हें तब आना था
जब किसी को स्मरण कराना था
अब याद करो खुद को जानो
अपने तेजस्व को पहचानो "
हर शक्ति आयी याद उन्हें
हर शक्ति आयी याद उन्हें
भूले थे बजरंग जिन्हें
भर हुंकार मारी छलांग
सागर को पल में लिया लांघ......
मात्र कथा भर नहीं है ये
सम्पूर्ण यहाँ पर नहीं है ये
गर्भ में है सन्देश पड़ा
छिपा है जिसमे मर्म बड़ा
हैं सब विशेष ,व्यक्ति प्रत्येक
भर हुंकार मारी छलांग
सागर को पल में लिया लांघ......
मात्र कथा भर नहीं है ये
सम्पूर्ण यहाँ पर नहीं है ये
गर्भ में है सन्देश पड़ा
छिपा है जिसमे मर्म बड़ा
हैं सब विशेष ,व्यक्ति प्रत्येक
खुद में छिपाए शक्तियां अनेक
जो अकल्पनीय असीमित हैं
अपने ही भीतर जीवित हैं
भंवर में दुःख के कितना घिरें
भंवर में दुःख के कितना घिरें
ठोकर खाकर लाख गिरें
न जाने खुद को शक्ति विहीन
न मानें खुद को दीन हीन
मन को समझायें बार बार
मन को समझायें बार बार
न करे जामवंत का इंतज़ार
जीवन यह रामायण नहीं
सबको जामवंत न मिलें कहीं
मित्र ,गुरु या हो ईश्वर
सबको जामवंत न मिलें कहीं
मित्र ,गुरु या हो ईश्वर
जागृत हैं अपने ही भीतर
पूछना है संसार से जो
अपने से पूछ के देखो वो
अंतरात्मा बोलेगी
अंतरात्मा बोलेगी
भेद सभी वो खोलेगी
स्वयं से सच्चे प्रश्न करो
स्वयं से सच्चे प्रश्न करो
कानों को मत बंद करो
हैं सारथी और रथ भी हैं हम
हैं सारथी और रथ भी हैं हम
अर्जुन भी हैं, हनुमान भी हम
अपना ही हाथ पकड़ना है
वैतरणी पार उतरना है
ललकारें खुद को
नए स्वप्न बुनें
अपने हनुमान जगाने को
ललकारें खुद को
नए स्वप्न बुनें
अपने हनुमान जगाने को
अपने ही जामवंत बनें ।
- योगेश शर्मा
जय हनुमान ज्ञान गुनी सागर ...
जवाब देंहटाएंVery very beautiful..
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