25 जनवरी 2020

'बन्दूक चलो बोयें'



भुला चुके हैं *माज़ी *मुस्तक़बिल भी चलो खोयें
मिल कर ज़मीं में अपनी, बन्दूक चलो बोयें

लहू से सीँचे इसको बारूद से सजाएं 
भर भर के खेत सारे लाशें ही फिर उगायें

इन वादियों में उड़ती चीखें ही चहचहाएं
जिस्मों की बालियां फिर हर ओर लहलहाएं

वक़्त कम है लेकिन हैं काम बहुत करने 
फूल प्यार के सब चुन चुन के है मसलने

दोस्ती की सारी बातों को है भुलाना
रिश्तों को गाड़ना है नस्लों को है जलाना

घरों में डालनी कौमों की सरहदे हैं
शैतानियत की अब भी बाकी कई हदें हैं

अस्मतों के दामन को तार तार करना
इंसानियत को पूरी तरह शर्मसार करना

तहज़ीब और अमन की बुनियाद ख़त्म कर दें
मुल्क की हस्ती को गहरे में दफ़्न दें

ग़र्क़ होगा जब सब तो ये संभाल लेंगे
*रहनुमाँ हमारे राहें निकाल लेंगे

ख्वाबों को क़त्ल करके चैन से फिर सोयें
मिल कर ज़मीं में अपनी बन्दूक चलो बोयें

भुला चुके हैं *माज़ी *मुस्तक़बिल भी चलो खोयें
मिल कर ज़मीं में अपनी, बन्दूक चलो बोयें।



*माज़ी - गुज़रा हुआ कल 
*मुस्तक़बिल - भविष्य ,आने वाला कल  
*रहनुमाँ - राह दिखाने वाले 

- योगेश शर्मा 

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