27 नवंबर 2021

'कह नहीं सकता'


 


 
मैं उस बहती नदी से जा के ये कह नहीं सकता
किनारों से बंधा हूँ साथ उसके बह नहीं सकता

न तो ये बात है कि तैरना आता नहीं मुझको
न ही ऐसा है कि अब तैरना भाता नहीं मुझको
ये चाहत है उतर कर उस में पूरा खो सा जाने की
मौजों  से लिपटने की मन तक भीग जाने की
मग़र साहिल का सीपी दरिया में अब रह नहीं सकता
किनारों से बंधा हूँ साथ उसके बह नहीं सकता

उन चंचल से धारो को अक्सर देख लेता हूँ
हसरत का कोई कंकर तब उसमें फ़ेंक देता हूँ
सतह पर उसकी पल भर को ज़रा हलचल सी होती है
वो हलचल मेरी ख़्वाहिश संग गहराई में खोती है
खुद ही को बोल देता हूँ किसी से कह नहीं सकता
किनारों से बंधा हूँ साथ उसके बह नहीं सकता

कभी कुछ दूर से चुप चाप उसका शोर सुनता हूँ
और उसके बहते पानी से थोड़ी ख़ामोशी चुनता हूँ
मोहब्बत चाहे हो जितनी उस पानी के धारे से
लगावट उससे ज़्यादा है मुझे अपने किनारे से
मुझे मालूम है ये राज़-ए- दिल वो सह नहीं सकता
किनारों से बंधा हूँ साथ उसके बह नहीं सकता

मैं उस बहती नदी से जा के ये कह नहीं सकता
किनारों से बंधा हूँ साथ उसके बह नहीं सकता।


- योगेश शर्मा

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