उसे यकीं है दुनिया में
मुर्दे ही बस पनपते हैं
रूह नोचते जिस्मों से
अरमान क़त्ल करते हैं
इंसान दबे हैं कब्रों में
अपने ख़्वाबों की ज़मीन तले
दूर हैं अब उस दुनिया से
जहां मुर्दों का अब राज चले
इक ज़माने में वो भी था इंसान
रोज़ साँसों को ग़र्क़ करता था
और तमन्नाओं के पिटारे से
रिसती उम्मीद देखा करता था
जा मिला उस हुजूम में वो कब
नहीं पता कुछ खबर न लगी
इन्सां रहने में उम्र बीती बहुत
मुर्दा बनने में इक घड़ी न लगी
अब नये रंग में मज़े में है
ख़ुशी के कहकहे लगाता है
रोज़ इंसान ढूंढ़ता है नए
रोज़ मुर्दे नए बनाता है
कोई इंसान बनना चाहे कभी
तो अपनी दास्ताँ सुनाता है
मुर्दा रहने से जो हुए हासिल
वो सभी फ़ायदे गिनाता है
सजदे कर के मुर्दा नगरी को
लहू के जाम पिए जायेगा
मरा तो जी उठा सदा के लिये
अब वो यूं ही जिये जायेगा |
- योगेश शर्मा
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