27 मार्च 2010

"मेरे पिताजी का स्कूटर"

 मैंने अपने बचपन की झांकी कुछ  दिन  पहले 'मेरे पिताजी' नामक ब्लॉग में प्रस्तुत की थी | जिन्होंने मेरा वो ब्लॉग पढ़ा है उन्हें  मेरे पिटते पिटाते बचपन का एक्शन पैक्ड  ट्रेलर मिल गया होगा| मैं उसमें आपको ये बताना भूल गया था कि  पिताजी के गुस्से को देख कर, कोई भी इस बात का अंदाजा कतई नहीं लगा सकता था  कि वो किसी बात पर कब  सिर्फ चिल्लायेंगे...कब पीट देंगे...कब चुप चाप यंत्र वत पीटेंगे या फिर कब चिल्ला चिल्ला के पीटेंगे| ऐसे ही आप,कभी ये भी अंदाजा नहीं लगा सकते कि कब वो पीटना बन्द करने वाले हैं, चुप हो जाने वाले हैं या फिर  शुरू हो जाने वाले हैं | मेरे दादा जी के टेबल फैन  की तरह, उनके हाथ चलते  चलते यूं ही बन्द हो जाते  थे और अचानक, वो फिर से पीटना शुरू हो जाते थे | मैंने न जाने  कितनी ही बार एक ही बात के लिए, किश्तों में मार खाई है |

मैं भी अपनी वोही पिटती पिटाती ज़िंदगी से मायूस हो चुका था  और इस मौके की तलाश में रहता था कि कुछ भी करके पिताजी की नज़रों में हीरो बन जाऊं | अब जबकि पढ़ाई  लिखाई से छत्तीस का आकडां था, तो वहां  कोई  उम्मीद थी नहीं और खेल-कूद व बदमाशियों को कंट्रोल करने का सीधा सीधा मतलब था जीना ही छोड़ देना | इन सब की  सीड़ी  लगाकर  पिताजी  के सम्मान  का पात्र बनना असंभव था | मैं किसी कोने से भी उन बच्चों  जैसा  प्रतिभा वान नहीं था जो मेहमानों के सामने गाना  गा कर, नर्सरी राइम सुना  कर, कविता पाठ,  चित्रकारी या कोई और कला का प्रदर्शन कर उन्हें आनंदित  और अपने माँ बाप को गौरवान्वित  करते थे |
यहाँ तो, अपना ये हाल था कि इधर  किसी  बच्चे ने अपना ये नमूना पेश किया और उधर पिताजी ने मुझे घूरना शुरू किया | मैं उनकी  जलती  हुयी आँखों और बुदबुदाते होंठों को डी-कोड  करने में खूब पारंगत हो गया था और घर आकर मुझे ठीक ठीक पता भी चल जाता था कि मैं इस रूपांतरण  में कहाँ कहाँ पर गलत  हुआ था | 

सत्तर के दशक के शुरुआती सालों में मेरे शहर  लखनऊ में स्कूटर का फैशन ज़ोरों पे था | हमारे मोहल्ले में भी कुछ अंकल नुमा परिचित अपने अपने स्कूटरों पे जलवे बिखेरते नज़र आते थे | हमारे हरकुलिस, अर्थात हरकुलिस साइकिल सवार अब्बा जान  बड़ी  हसरत भरी निगाह से उन  सभी  को रोज़ देखते और अक्सर ठंडी सांस भरते हुए  स्कूटर मालिक होने के अपने सपनों में खो जाते | उन दिनों स्कूटर आसानी से उपलब्ध नहीं थे और बजाज और वेस्पा जैसे स्कूटर बुकिंग के बाद सालों में मिलते थे| पिताजी को वैसे भी ये स्कूटर बड़े कमसिन बसन्ती नुमा लगते थे |  उन्हें लगता था कि उनकी शख्सियत के साथ अगर कुछ मैच करता है वो या तो रायल इनफील्ड 'बुलेट' है और या फिर दो रंगों वाला गजकाय लम्ब्रेटा स्कूटर | बुलेट  खरीदना चूंकि बूते के बाहर  था  इसलिए  उन्होंने  यही फैसला किया कि एक सेकंड  हैण्ड   लम्ब्रेटा   खरीद लिया जाये, जो कि उन दिनों कुछ हज़ार बारह सौ में आ जाता था |

एक नियत दिन, पत्री पंचांग देख कर, एक अदद स्कूटर का घर आगमन हुआ | टीका रोली करके ,नारियल फोड़ फाड़ के हमारे पिताजी उस पर सवार हुए और उसी मोहल्ले का एक चक्कर पहले अकेले, फिर माँ के साथ फिर छोटे भाई के साथ और अंत में मुझ गरीब के साथ भी लगा आये | उस दिन हम सब खुश थे और वो स्कूटर भी, हमें पाकर  काफी खुश सा लगता था, क्योंकी उसके  साईलेंसर की गर्जना दो तीन मुहल्लों  तक सुनायी दे रही थी |

उस दिन के बाद से, मैं थोड़ा ज्यादा खुश रहने लगा और पिताजी की खुशी रोज़ थोड़ी कम होने लगी | मेरे  खुश होने के तीन बड़े कारण थे, पहला ये  कि  मोहल्ले में थोड़ा रौब हो गया था और अब मेरा उठना बैठना भी कुछ स्कूटर-पति, पिताओं के पुत्रों के साथ होने लग पड़ा था, दूसरी खुशी की वजह ये थी कि स्कूटर की असाधारण आवाज़  से पिताजी के दफ्तर से लौटने का पता आसानी से चल जाता और मैं एन  मौके पर घर पहुँचने लगा था | तीसरा, पिताजी अपने स्कूटर  को काफी समय देने लगे थे| कुछ उसकी साफ़ सफाई की वजह से और कुछ उसके अक्सर बिगड़ते रहते मिजाज की वजह से | इस कारण से मैं उनकी थप्पड़ वर्षा से वंचित, सूखा सूखा सा रहता था और मेरे अक्सर फूले रहने वाले गाल भी अपने सही आकार में दिखने लगे थे |

खैर,  अपने हीरो बनने की कामना को लेकर (जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है ) मैं काफी उत्सुक रहता था और किसी अनमोल  मौके की तलाश में रहता था | भगवान् ने एक दिन मेरी सुन ली और मुझे आखिरकार  अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मिल ही गया | हुआ ये, कि अक्सर थोड़ा रूठा रूठा रहने वाला स्कूटर एक सुबह कुछ ज़्यादा ही नाराज़ हो गया और उसने चालू होने से साफ़ इनकार कर दिया | पिताजी एक तरफ तो लगातार किक लगाने से तो दूसरी तरफ मज़ा लेते मोहल्ले वालों के सामने किरकिरी होने से बहुत ज्यादा  परेशान  नज़र आ रहे थे | गुस्से, थकान  और अपमान की पीड़ा के भाव  आपस में गुथ्थम गुथ्था होकर  उनके चेहरे  को बहुत अजीब सा बना रहे थे | मोहल्ले के वो लोग भी जो स्कूटर को फटफटी नाम से ही जानते संबोधित करते थे अपनी अपनी विशेष  टिप्पणी और विशेषज्ञ राय से माहोल और गरमा रहे थे | एक सज्जन बोले "बाबूजी इसमें कचरा आ गया लगता है....दूसरे जनाब बोले " भैया जी, इसको एक तरफ लिटा दो ...हमने देखा है कि लिटा के उठा कर किक मारो तो घर्र  से स्टार्ट हो जाता है" वगेरह वगैरह... पिताजी के सामने  किक मारते मारते चुप चाप उनकी बातें सुनते जाने  के सिवाय और कोई चारा नहीं था |

उन दिनों स्कूटर को दौड़ा कर स्टार्ट करने का ज्ञान गिने चुने लोगों के पास ही होता था और पिताजी भी इस ज्ञान से थोड़ा महरूम थे | उन्होंने इस के बारे में शायद सुना था और दूर से एक आध लोगों को इसे आजमाते भी देखा था |  वे बेचारे स्कूटर पर ख़ुद बैठ कर हम बच्चों से काफी धक्का भी लगवा  चुके थे पर विफल रहे थे | उन्हें इस बात का बिलकुल इल्म नहीं था कि धक्का लगाते हुए उसे गियर में डालना ज़रूरी होता है |

मैंने, दो चार बार अपने एक मित्र के पिताजी को स्कूटर दौड़ा कर स्टार्ट  करते देखा था और साथ में यह गौर किया था कि वो स्कूटर को, पहले, गियर में डाल लेते थे और फिर दौडाते थे  | पिताजी को उनकी इस हालत में, उन्हें यह राज़ बताना चूहे को बिल्ली के गले में घंटा बाँधने से भी भयंकर काम था | चूहे के पास तो उसका अपना बिल होता है छुपने  को |  उससे बड़ी बात तो यह थी, कि किसी  शेर को एक अदना से चींटे  से, अगर सबके  सामने ये मालूम  चले कि शिकार करने का तरीका क्या है, तो कैसी फजीहत होगी उसकी??

मुझसे लेकिन, पिताजी की यह हालत नहीं देखी जा रही थी और साथ ही साथ हीरो बनने की भावना कुछ ज़्यादा ही ठाठें मारने लगी थी | डरते-डरते मैंने "हुज़ूर, जान की अमान पाऊँ तो कहूं" वाले अंदाज़  के साथ उनके इकदम करीब जाकर  कहा "पापा आप इसको दौड़ा के स्टार्ट क्यों नहीं करते ,मैंने अंकल को देखा है, वो गियर में डाल कर दौडाते हैं और स्टार्ट कर लेते हैं".... पता नहीं कि उन्हें मेरी बात बहुत ज़्यादा भा गयी थी या वो इस तमाशे से पक चुके थे या कहीं इस बात  के  डर से कि लोग समझ न जाएँ  कि शर्मा जी को स्कूटर ज्ञान उनके बेटे से मिला है..... वो मेरी बात पूरा होने के पहले ही स्कूटर गियर मैं डाल कर दौड़ पड़े .............

उनकी किस्मत ने उनका साथ दिया और मेरी किस्मत ने मेरा साथ  छोड़ा कि स्कूटर स्टार्ट हो गया | उसके बाद लेकिन,  उन्हें ये समझ नहीं आया कि  इसे अब रोकें, तो रोकें कैसे | ना ही उन्हें ये समझ आया के वो कूद कर उसपर बैठ जाएँ और ना ही उनको हाथ वाला  ब्रेक दबाना ही सूझा...ऊपर से, वो कमबख्त एक्सीलेटर उनके हाथ में घूम गया और स्कूटर की रफ़्तार और तेज़ हो गयी | अब आलम ये था कि पिताजी स्कूटर के साथ साथ दौड़ रहे थे ...मैं उनके पीछे दौड़ रहा था ... बच्चे मेरे पीछे दौड़ रहे थे और कुछ मददगार मोहल्ले वाले उनके पीछे |

कुछ देर यूं ही दौड़ने के बाद थके हारे पिताजी ने स्कूटर के स्टेयरिंग को  अपने हाथ से कुछ ऐसे छोड़ा जैसे स्लो मोशन में देव आनंद ने वहीदा रहमान का आँचल छोड़ा हो | फिर उसके बाद स्कूटर एक तरफ ,पिताजी दूसरी तरफ और हम सभी  उनके चारों तरफ |

फिर सीन ये था कि एक तरफ पिताजी चारों खाने चित्त पड़े थे दूसरी तरफ स्कूटर जंगली भैंसे जैसे पड़ा डकारें ले रहा था और तीसरी तरफ मैं एक निवासी के पीछे छुपा, भीगी बिल्ली की तरह कांप रहा था ....मुझे मालूम था कि ये सीन भले ही जैसे भी क्लोस हो अगला सीन एक नियत तरह ही शुरू होगा ...और फिर हुआ भी वोही ...आँख  खुलते ही उनके श्रीमुख से  बजाय मैं कहाँ हूँ निकलने के ..."वो नालायक...उल्लू *#!%*#.. है कहाँ?"  भभक पड़ा ..बस फिर क्या था मैं आगे आगे और पिताजी पीछे पीछे...और कुछ भद्र मोहल्ले वाले "अरे बाबूजी छोड़ दो...जाने दो...बच्चा है"  कहते कहते उनके पीछे ...और फिर, .......फिर क्या...कहानी फिनिश.श..श..श  |



- योगेश शर्मा

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब झाँकी खींची है पिता जी की।

    भाई ये शब्द पुष्टिकरण तो हटा ही दें वर्ना टिपियाने वाले बहुत कम या बिलकुल न होंगे।

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  2. बहुत बढ़िया संस्मरण रहा...भारी पिटे हो भाई. हमसे भी ज्यादा. :)

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    हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

    लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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  3. कहना भूल गये..मस्त लिखते हो, बधाई!

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  4. बेनामी24/3/10 8:52 pm

    think, why I think- I suspect- why suspect- I am almost certain of- another Shrilal Shukla in Making.Just avoid to be extra laud.
    Look forward to read some time in future some thing like; Yogesh Sharma creates Raag Darbari II- Rangath Returns
    Likhkhe Jao
    Arun Tiwari

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  5. जबरदस्त अंदाज़ है कहानी सुनाने का आपका। आपको बहुत बहुत बधाईयां।

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