09 अप्रैल 2010

"पंथी"





धड़कने तक गूंजती हैं
खामोशियाँ छाई है कितनी
राह ढूंढे है अँधेरा
रात गहराई है इतनी

चांदनी में तर हवाएं
लोरिओं का राग दें
बिस्तरे में नर्म तकिये
बांहें फैला आवाज़ दें

पलकें हुयी जाती हैं बोझिल
जिस्म चाहे टूटता है,
हौसलों में मस्त ये मन
चलने को ही बस बोलता है

अभी मंजिलें पानी बहुत हैं
शिखर कितने जीतने हैं
नापना अम्बर है बाकी
ढेरों समंदर सोखने हैं

इक घड़ी को ही सही, पर
क्यों नींद में खोने की सोचूँ
ख्वाब कितने हैं अधूरे
क्यों भला सोने की सोचूँ

ख्वाब करने हैं जो पूरे
क्यों भला सोने की सोचूँ

- योगेश शर्मा

6 टिप्‍पणियां:

  1. bahut achchi rachna hai....

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  2. बेनामी1/1/12 11:33 am

    Naturally I like your web-site, but you need to take a look at the spelling on quite a few of your posts. A number of them are rife with spelling issues and I find it very silly to inform you. On the other hand I will definitely come again again!

    जवाब देंहटाएं
  3. बेनामी11/2/12 10:44 pm

    Superb read! We’re now starting out in SMO and trying to catch on to how to fully partake of Facebook Marketing for small business.

    Keep up the good work!

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  4. बेनामी24/4/12 1:52 am

    Thank you for sharing
    I really like

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