रात,
मिलने का वादा कर
जाने लगी,
पंखुरी, फूल बन के
मुस्कुराने लगी,
उजाले लिए गुलाबी,
उजाले लिए गुलाबी,
धरे पाँव सुबह ने,
बूँदें ओस की,
फिर झिलमिलाने लगी,
पत्तों की छन्नी से,
रौशनी जो गुज़री है,
घास के फर्श पे,
तस्वीरें सी संवरी हैं,
दूर, चोटी से
बर्फ, पिघली है
सालों बाद,
एक धारा नीचे,
दबे पाँव उतरी है
नदी,
दिनों से
दिनों से
मंसूबे लगाए बैठी है,
थामने धारा को,
बांहे फैलाये बैठी है,
कितनी रातों से न झपकी,
एक भी बार,
पलकें राह पे,
कबसे गड़ाए बैठी है,
सदियों से जो धारा,
पत्थर थी बनी,
सर्द चादर लपेटे,
खड़ी थी बुत सी तनी
टूट कर जो बही,
इक लकीर की मानिंद,
मिल कर गले,
नदी से,
अब समंदर है बनी |
- योगेश शर्मा
BAHUT KHUB
जवाब देंहटाएंBADHAI AAP KO IS KE LIYE
वाह बहुत सुन्दर मिलन्।
जवाब देंहटाएंग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए....बहुत सुन्दर कविता
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