अपनी धुरी पे घूमती,
प्रचंड अग्नि चूमती,
अनादि काल से
अनंत अंतरिक्ष तोलती,
कर्तव्य से जुड़ी सदा,
युगों-युगों से डोलती,
सृष्टि के नए-नए,
रहस्यों को खोलती
धरा तुम भी ख़ूब हो,
कभी भी कुछ न मांगती ,
धरा तुम भी ख़ूब हो,
कभी भी कुछ न बोलती,
तुमने बदलते देखा है,
युगों के स्वरुप को,
तुमने बिगड़ते देखा है,
मानवता के रूप को,
वनस्पति का सृजन
और जीव का ललन,
हरेक अंश-अंश में,
ममता ही बस उड़ेलती,
धरा तुम भी ख़ूब हो, कभी भी कुछ न मांगती,
धरा तुम भी ख़ूब हो, कभी भी कुछ न बोलती,
एक भी क्षण के लिए,
रूकती नहीं क्यों भला,
तनिक कहो तो सही,
थकती नहीं क्यों भला,
प्रकृति और मनुष्य की,
यातनायें झेलती,
निस्वार्थ भाव से हर एक,
बोझ को संभालती,
धरा तुम भी ख़ूब हो, कभी भी कुछ न मांगती,
धरा तुम भी ख़ूब हो, कभी भी कुछ न बोलती,
चरित्र आंकलन नहीं,
कभी तुम्हें स्वीकार्य है,
पक्षपात छू सके,
किया न ऐसा कार्य है,
जंतु, वन, मानव, पशु,
सबको ख़ुशी से पालती,
सबकी, समान भाव से,
झोली में भेंट डालती,
धरा तुम भी ख़ूब हो, कभी भी कुछ न मांगती,
धरा तुम भी ख़ूब हो, कभी भी कुछ न बोलती,
- योगेश शर्मा
sir aapki kavita padhkar natmastak hun...dharti maa sach me mahan hai...lekin jis din wo boli us din pralay aa jayegi...
जवाब देंहटाएंDhanyawaad Dilip bhai...yoon hee sneh banaaye rakhein
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता ...
जवाब देंहटाएं... बेहद प्रभावशाली है ।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।
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