स्वयं को फिर मैंने
अपने से हार दिया
अपने से हार दिया
मैं निर्बल हूँ कितना
अब ये स्वीकार किया
विष को जाने कबसे,
कंठ में रोका था
ईश्वर हो जाने का ,
हुआ इक धोखा था
जहर ये चुपके से,
नीचे उतार लिया
मैं निर्बल हूँ कितना,
अब ये स्वीकार किया
कितने जन्मों से ये ,
रेंगता था छाती पर
रेंगता था छाती पर
सच का सांप देता था,
मुझको कितना डर
झूठ के नश्तर से
विष-दन्त उखाड़ दिया
मैं निर्बल हूँ कितना
अब ये स्वीकार किया |
- योगेश शर्मा
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जवाब देंहटाएंखूबसूरत पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार!
जवाब देंहटाएंस्वयं को फिर से हार दिया ...
जवाब देंहटाएंकितना निर्बल हूँ स्वीकार किया ...
निर्बलता और कमियां स्वीकार करना आत्मावलोकन की प्रक्रिया है ...चलती रहे ...!!
bahut sundar prastuti
जवाब देंहटाएंबढिया ...
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