ज़िंदगी से ज़िंदगी जीने का कुछ इनाम लूं
क्या हुआ तक़दीर की लपटों ने मय सब सोख ली
जश्न ए बर्बादी मनाने हाथों में खाली जाम लूं
दोस्त, दुश्मन और अक्सर उनमे शामिल मैं भी था
सबने सफ़ीने को डुबोया , किसका भला अब नाम लूं
क्या हुआ कैसे हुआ, है गुफ़्तगू बाकी बहुत
कमज़ोर पड़ती हाँफती साँसों को थोड़ा थाम लूं
नाम कितने ही पुकारे, कोई भी आया नहीं
सोचता हूँ चंद चीखें अब ज़रा बेनाम लूं
बेच दूं नग्में बना के, ज़ख्मों से कोई काम लूं....
- योगेश शर्मा
hmm..nice..:)
जवाब देंहटाएंदोस्त, दुश्मन और अक्सर उनमे शामिल मैं भी था
जवाब देंहटाएंसबने सफ़ीने को डुबोया , किसका भला अब नाम लूं
vaah vaah bahut khub ...
खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंदोस्त, दुश्मन और अक्सर उनमे शामिल मैं भी था
जवाब देंहटाएंसबने सफ़ीने को डुबोया , किसका भला अब नाम लूं
वाह क्या बात कही। शुभकामनायें।
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने!
जवाब देंहटाएंBahut sundar...
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत गज़ल. शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएं