कभी इन की दूरी कभी इनका मेल
ये जीवन सुना, है लकीरों का खेल
तकदीर बन ये हथेली पे चढ़ती
शिकन बन कभी माथे पे जड़ती
सरहदें बन अपनों को पड़ोसी बनाएं
लकीरें रोज़ नए गुल खिलायें
कभी चेहरे पे छा, आइनें में डराती
कभी चेहरे पे छा, आइनें में डराती
कलम वक्त की इन्हें जिस्म पे सजाती
दरार बन कभी रिश्तों में आये
लकीरें रोज़ नए गुल खिलायें
दरार बन कभी रिश्तों में आये
लकीरें रोज़ नए गुल खिलायें
ऊपर अपनी लकीर के दिखे बड़ी लकीर
हर खुशी हो के फीकी लगे देने पीर
ज़िंदगी, जोड़ घटाने का गणित बन जाए
लकीरें रोज़ नए गुल खिलायें
लकीरें रोज़ नए गुल खिलायें
क्यों न ये लकीरें मिला लें
सिरे जोड़ एक चक्र बना लें
न कोई आदि, न कोई अंत
परिधी में पूर्ण, गति में अनंत
बनाएं पहिया इन्हें ,आगे धकेले जाएँ
चलो लकीरों से गुल खिलायें
अगर है ये जीवन लकीरों का खेल
फिर तू भी इन लकीरों से खेल
ये जीवन सुना, है लकीरों का खेल ।।।
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ये जीवन सुना, है लकीरों का खेल ।।।
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जवाब देंहटाएंदिनांक 23/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंवाह योगेशजी ...लकीरों को खूब समझा है .....बहुत सुन्दर और सटीक विश्लेषण ...मज़ा आ गया ...:)
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