09 अक्तूबर 2013

'मन का पंछी'

 
अँधियारा पिंजरे में घुप है
आज भी मन का पंछी  चुप है

फ़ैले हैं यादों के दाने
वो भी चुगे नहीं, क्यों जाने 
शक्लें ,बातें वक्त के साए
कोई भी न आये जाये

न तो पिछला न ही अगला
कुछ भी याद करे न पगला 
पंख समेटे हुये पड़ा है
जाने कब से नहीं उड़ा  है

बादल, मौसम, रंग, नज़ारे 
चाहे वो कितना भी पुकारें 
न कोइ आवाज़ सुने अब 
मतलब खो बैठे जैसे सब 

झुका है सर और बंद है आँखें
ताकि इन मे कोई न झांके
दर्द की स्याही दिख जायेगी
चेहरे पर कुछ लिख जायेगी

वो किस्से जो याद रहे ना
छोड़ के लेकिन कहीं गये ना 
लुकते छुपते रहा था जिनसे
हो जायें न रौशन फिर से

इसी लिए अँधियारा घुप है
आज भी मन का पंछी  चुप है

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक ऐसे मनोभाव को उजागर किया आपने जो हर व्यक्ति कभी कभी न महसूसता है ...सुन्दर..बहुत सुन्दर..!!!

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