माँगी थी तन्हाई थोड़ी शोर से घबरा के
कर दिया बिलकुल अकेला ख़ुदा ने तरस खा के
वक्त जो बस रेत होता झाड़ कर उठ जाता मैं
क्या करूं रूह तक भिगोया मौज ने टकरा के
कान आहट पर लगे हैं पर कोई आता नहीं
खुद को बहलाता हूँ घर की कुण्डियाँ खड़का के
ढूंढ़ता हूँ रोज़ छत पर उन सितारों के निशाँ
जो शहर की रौशनी से छुप गए घबरा के
राह के सब मोड़ ऐसे खेलने मुझसे लगे
रास्तों पर छोड़ दें फिर मंज़िलों तक ला के
टूटने के बाद तो मौसम असर करते नहीं
जोड़ कर रखा है ख़ुद को कबसे ये समझा के
माँगी थी तन्हाई थोड़ी शोर से घबरा के ।
माँगी थी तन्हाई थोड़ी शोर से घबरा के ।
- योगेश शर्मा
बेहद गहरे अर्थों से लबरेज़ रचना
जवाब देंहटाएंShukriya Sanjay Ji
जवाब देंहटाएंकान आहट पर लगे हैं पर कोई आता नहीं
जवाब देंहटाएंखुद को बहलाता हूँ घर की कुण्डियाँ खड़का के ..
बहुत खूब ... बहुत ही उम्दा शेर कहा है ...
bahut sundar
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