कानों में चीख़ती है करती है सांय सांय
बग़ावत सी कर रही है ग़ुलाम ये हवाएं
झुक कर के कल तलक ये घुटनों पे रेंगती थीं
सर जो उठा लिया है आज़ाद हो न जाएं
आंच में लहू की कब से पिघल रहा है
खामोशियों का लोहा नश्तर में ढल न जाए
झोपड़े तो गिर कर सौ बार फ़िर उठे हैं
ये महल रेत के हैं कहीं वो बिखर न जाएँ
मरने का ख़ौफ़ दिल से रिश्ता ही तोड़ बैठे
कोई ज़िन्दगी से कह दो इतना भी मत डराए
कानों में चीख़ती है करती है सांय सांय
बग़ावत सी कर रही है ग़ुलाम ये हवाएं।
बहुत खूब!
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