जाती उम्र पे आते शबाब देखते हैं
अक्सर ये ख़्वाब मेरे कुछ ख़्वाब देखते हैं
डर डर के देखने में रखते नहीं यकीं
जो कुछ भी देखते हैं बेहिसाब देखते हैं
करती है ज़िन्दगी जो होश में सवाल
मदहोशियों में उनके जवाब देखते हैं
लम्हे मोहब्बतों के सूखे फूल बन कर
खो गए हैं जिसमें वो किताब देखते हैं
दिल में छुपी हुयी कुछ शर्मीली हसरतें हैं
परदे हटा के उनको बेनक़ाब देखते हैं
हो जाए रात कितनी भी स्याह मगर ये
बुझते से हौसलों में आफ़ताब देखते हैं
खोयी हुयी सी राहें नामुमकिन मंज़िलें
दिखती नहीं किसी को, जनाब देखते हैं
मायूसियाँ हों चाहे नाकामियां हज़ारों
मुझको ये हमेशा कामयाब देखते हैं
अक्सर ये ख़्वाब मेरे कुछ ख़्वाब देखते हैं
- योगेश शर्मा
बहुत शानदार गज़ल...शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएं