21 दिसंबर 2021

खिज़ा ने चाहा

                                        


खिज़ा ने चाहा वो हो गया है
फूल ख़ुश्बू से जुदा हो गया है

 चमन ग़ुलज़ार किया था उसने
फ़सल काँटों की भी बो गया है

परस्तिश की हसरत ऐसी जगी
वो अब अपना ख़ुदा हो गया है

तमाम उम्र पलकें ख़ुश्क़ रहीं
लम्हा छूकर उन्हें भिगो गया है

बहुत देर चीख़ा चिल्लाया
ज़मीर फिर थक के सो गया है

मंज़िलें ढूंढ़ता था शहर में जो
घर की दीवारों में खो गया है

सर्द एहसासों में झलकता है
लहू अब बर्फ हो गया है

बेरुख़ी में अजीब राहत थी
प्यार की बर्छियां चुभो गया है

खिज़ा ने चाहा वो हो गया है


      
 *खिज़ा - पतझड़ 
*परस्तिश - आराधना  
 


- योगेश शर्मा 

4 टिप्‍पणियां:

  1. मंज़िलें ढूंढ़ता था शहर में जो
    घर की दीवारों में खो गया है ।
    क्या बात !!!! बहुत खूब

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  2. शानदार रचना प्रिय योगेश जी। उम्दा प्रस्तुति है आपकी

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    उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया रेणु जी। आभार

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  3. तमाम उम्र पलकें ख़ुश्क़ रहीं
    लम्हा छूकर उन्हें भिगो गया है///
    बहुत देर चीख़ा चिल्लाया
    ज़मीर फिर थक के सो गया है////👌👌👌👌👌

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